अमृतसर आ गया है… (भाग-2): भीष्म साहनी की कहानी

October 10, 2022, 6:49 PM IST

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Amritsar aa gaya hai

‘ऐसे आदमी को अम डिब्बे में नईं बैठने देगा. ओ बाबू, अगले स्टेशन पर उतर जाओ, और जनाना डब्बे में बैटो.’

मगर बाबू की हाजिरजवाबी अपने कंठ में सूख चली थी. हकला कर चुप हो रहा. पर थोड़ी देर बाद वह अपने आप उठ कर सीट पर जा बैठा और देर तक अपने कपड़ों की धूल झाड़ता रहा. वह क्यों उठ कर फर्श पर लेट गया था? शायद उसे डर था कि बाहर से गाड़ी पर पथराव होगा या गोली चलेगी, शायद इसी कारण खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जा रहे थे.

कुछ भी कहना कठिन था. मुमकिन है किसी एक मुसाफिर ने किसी कारण से खिड़की का पल्ला चढ़ाया हो. उसकी देखा-देखी, बिना सोचे-समझे, धड़ाधड़ खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे थे.

बोझिल अनिश्चत-से वातावरण में सफर कटने लगा. रात गहराने लगी थी. डिब्बे के मुसाफिर स्तब्ध और शंकित ज्यों-के-त्यों बैठे थे. कभी गाड़ी की रफ्तार सहसा टूट कर धीमी पड़ जाती तो लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगते. कभी रास्ते में ही रुक जाती तो डिब्बे के अंदर का सन्नाटा और भी गहरा हो उठता. केवल पठान निश्चित बैठे थे. हाँ, उन्होंने भी बतियाना छोड़ दिया था, क्योंकि उनकी बातचीत में कोई भी शामिल होने वाला नहीं था.

धीरे-धीरे पठान ऊँघने लगे जबकि अन्य मुसाफिर फटी-फटी आँखों से शून्य में देखे जा रहे थे. बुढ़िया मुँह-सिर लपेटे, टाँगें सीट पर चढ़ाए, बैठा-बैठा सो गई थी. ऊपरवाली बर्थ पर एक पठान ने, अधलेटे ही, कुर्ते की जेब में से काले मनकों की तसबीह निकाल ली और उसे धीरे-धीरे हाथ में चलाने लगा.

खिड़की के बाहर आकाश में चाँद निकल आया और चाँदनी में बाहर की दुनिया और भी अनिश्चित, और भी अधिक रहस्यमयी हो उठी. किसी-किसी वक्त दूर किसी ओर आग के शोले उठते नजर आते, कोई नगर जल रहा था. गाड़ी किसी वक्त चिंघाड़ती हुई आगे बढ़ने लगती, फिर किसी वक्त उसकी रफ्तार धीमी पड़ जाती और मीलों तक धीमी रफ्तार से ही चलती रहती.

सहसा दुबला बाबू खिड़की में से बाहर देख कर ऊँची आवाज में बोला – ‘हरबंसपुरा निकल गया है.’ उसकी आवाज में उत्तेजना थी, वह जैसे चीख कर बोला था. डिब्बे के सभी लोग उसकी आवाज सुन कर चौंक गए. उसी वक्त डिब्बे के अधिकांश मुसाफिरों ने मानो उसकी आवाज को ही सुन कर करवट बदली.

‘ओ बाबू, चिल्लाता क्यों ए?’, तसबीह वाला पठान चौंक कर बोला – ‘इदर उतरेगा तुम? जंजीर खींचूँ?’ अैर खी-खी करके हँस दिया. जाहिर है वह हरबंसपुरा की स्थिति से अथवा उसके नाम से अनभिज्ञ था.

बाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल सिर हिला दिया और एक-आध बार पठान की ओर देख कर फिर खिड़की के बाहर झाँकने लगा.

डब्बे में फिर मौन छा गया. तभी इंजन ने सीटी दी और उसकी एकरस रफ्तार टूट गई. थोड़ी ही देर बाद खटाक-का-सा शब्द भी हुआ. शायद गाड़ी ने लाइन बदली थी. बाबू ने झाँक कर उस दिशा में देखा जिस ओर गाड़ी बढ़ी जा रही थी.

‘शहर आ गया है.’ वह फिर ऊँची आवाज में चिल्लाया – ‘अमृतसर आ गया है.’ उसने फिर से कहा और उछल कर खड़ा हो गया, और ऊपर वाली बर्थ पर लेटे पठान को संबोधित करके चिल्लाया – ‘ओ बे पठान के बच्चे! नीचे उतर तेरी माँ की… नीचे उतर, तेरी उस पठान बनानेवाले की मैं…’

बाबू चिल्लाने लगा और चीख-चीख कर गालियाँ बकने लगा था. तसबीह वाले पठान ने करवट बदली और बाबू की ओर देख कर बोला -‘ओ क्या ए बाबू? अमको कुच बोला?’

बाबू को उत्तेजित देख कर अन्य मुसाफिर भी उठ बैठे.

‘नीचे उतर, तेरी मैं… हिंदू औरत को लात मारता है! हरामजादे! तेरी उस….’

‘ओ बाबू, बक-बकर नई करो. ओ खजीर के तुख्म, गाली मत बको, अमने बोल दिया. अम तुम्हारा जबान खींच लेगा.’

‘गाली देता है मादर….’ बाबू चिल्लाया और उछल कर सीट पर चढ़ गया. वह सिर से पाँव तक काँप रहा था.

‘बस-बस.’ सरदार जी बोले – ‘यह लड़ने की जगह नहीं है. थोड़ी देर का सफर बाकी है, आराम से बैठो.’

‘तेरी मैं लात न तोड़ूँ तो कहना, गाड़ी तेरे बाप की है?’ बाबू चिल्लाया.

‘ओ अमने क्या बोला! सबी लोग उसको निकालता था, अमने बी निकाला. ये इदर अमको गाली देता ए. अम इसका जबान खींच लेगा.’

बुढ़िया बीच में फिर बोले उठी – ‘वे जीण जोगयो, अराम नाल बैठो. वे रब्ब दिए बंदयो, कुछ होश करो.’

उसके होंठ किसी प्रेत की तरह फड़फड़ाए जा रहे थे और उनमें से क्षीण-सी फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी.

बाबू चिल्लाए जा रहा था – ‘अपने घर में शेर बनता था. अब बोल, तेरी मैं उस पठान बनानेवाले की….’

तभी गाड़ी अमृतसर के प्लेटफार्म पर रुकी. प्लेटफार्म लोगों से खचाखच भरा था. प्लेटफार्म पर खड़े लोग झाँक-झाँक कर डिब्बों के अंदर देखने लगे. बार-बार लोग एक ही सवाल पूछ रहे थे – ‘पीछे क्या हुआ है? कहाँ पर दंगा हुआ है?’

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खचाखच भरे प्लेटफार्म पर शायद इसी बात की चर्चा चल रही थी कि पीछे क्या हुआ है. प्लेटफार्म पर खड़े दो-तीन खोमचे वालों पर मुसाफिर टूटे पड़ रहे थे. सभी को सहसा भूख और प्यास परेशान करने लगी थी. इसी दौरान तीन-चार पठान हमारे डिब्बे के बाहर प्रकट हो गए और खिड़की में से झाँक-झाँक कर अंदर देखने लगे. अपने पठान साथियों पर नजर पड़ते ही वे उनसे पश्तो में कुछ बोलने लगे. मैंने घूम कर देखा, बाबू डिब्बे में नहीं था. न जाने कब वह डिब्बे में से निकल गया था. मेरा माथा ठिनका. गुस्से में वह पागल हुआ जा रहा था. न जाने क्या कर बैठे! पर इस बीच डिब्बे के तीनों पठान, अपनी-अपनी गठरी उठा कर बाहर निकल गए और अपने पठान साथियों के साथ गाड़ी के अगले डिब्बे की ओर बढ़ गए. जो विभाजन पहले प्रत्येक डिब्बे के भीतर होता रहा था, अब सारी गाड़ी के स्तर पर होने लगा था.

खोमचेवालों के इर्द-गिर्द भीड़ छँटने लगी. लोग अपने-अपने डिब्बों में लौटने लगे. तभी सहसा एक ओर से मुझे वह बाबू आता दिखाई दिया. उसका चेहरा अभी भी बहुत पीला था और माथे पर बालों की लट झूल रही थी. नजदीक पहुँचा, तो मैंने देखा, उसने अपने दाएँ हाथ में लोहे की एक छड़ उठा रखी थी. जाने वह उसे कहाँ मिल गई थी! डिब्बे में घुसते समय उसने छड़ को अपनी पीठ के पीछे कर लिया और मेरे साथ वाली सीट पर बैठने से पहले उसने हौले से छड़ को सीट के नीचे सरका दिया. सीट पर बैठते ही उसकी आँखें पठान को देख पाने के लिए ऊपर को उठीं. पर डिब्बे में पठानों को न पा कर वह हड़बड़ा कर चारों ओर देखने लगा.

‘निकल गए हरामी, मादर… सब-के-सब निकल गए!’ फिर वह सिटपिटा कर उठ खड़ा हुआ चिल्ला कर बोला – ‘तुमने उन्हें जाने क्यों दिया? तुम सब नामर्द हो, बुजदिल!’

पर गाड़ी में भीड़ बहुत थी. बहुत-से नए मुसाफिर आ गए थे. किसी ने उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया.

गाड़ी सरकने लगी तो वह फिर मेरी वाली सीट पर आ बैठा, पर वह बड़ा उत्तेजित था और बराबर बड़बड़ाए जा रहा था.

धीरे-धीरे हिचकोले खाती गाड़ी आगे बढ़ने लगी. डिब्बे में पुराने मुसाफिरों ने भरपेट पूरियाँ खा ली थीं और पानी पी लिया था और गाड़ी उस इलाके में आगे बढ़ने लगी थी, जहाँ उनके जान-माल को खतरा नहीं था.

नए मुसाफिर बतिया रहे थे. धीरे-धीरे गाड़ी फिर समतल गति से चलने लगी थी. कुछ ही देर बाद लोग ऊँघने भी लगे थे. मगर बाबू अभी भी फटी-फटी आँखों से सामने की ओर देखे जा रहा था. बार-बार मुझसे पूछता कि पठान डिब्बे में से निकल कर किस ओर को गए हैं. उसके सिर पर जुनून सवार था.

गाड़ी के हिचकोलों में मैं खुद ऊँघने लगा था. डिब्बे में लेट पाने के लिए जगह नहीं थी. बैठे-बैठे ही नींद में मेरा सिर कभी एक ओर को लुढ़क जाता, कभी दूसरी ओर को. किसी-किसी वक्त झटके से मेरी नींद टूटती, और मुझे सामने की सीट पर अस्त-व्यस्त से पड़े सरदार जी के खर्राटे सुनाई देते. अमृतसर पहुँचने के बाद सरदार जी फिर से सामनेवाली सीट पर टाँगे पसार कर लेट गए थे. डिब्बे में तरह-तरह की आड़ी-तिरछी मुद्राओं में मुसाफिर पड़े थे. उनकी बीभत्स मुद्राओं को देख कर लगता, डिब्बा लाशों से भरा है. पास बैठे बाबू पर नजर पड़ती तो कभी तो वह खिड़की के बाहर मुँह किए देख रहा होता, कभी दीवार से पीठ लगाए तन कर बैठा नजर आता.

किसी-किसी वक्त गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकती तो पहियों की गड़गड़ाहट बंद होने पर निस्तब्धता-सी छा जाती. तभी लगता, जैसे प्लेटफार्म पर कुछ गिरा है, या जैसे कोई मुसाफिर गाड़ी में से उतरा है और मैं झटके से उठ कर बैठ जाता.

इसी तरह जब एक बार मेरी नींद टूटी तो गाड़ी की रफ्तार धीमी पड़ गई थी, और डिब्बे में अँधेरा था. मैंने उसी तरह अधलेटे खिड़की में से बाहर देखा. दूर, पीछे की ओर किसी स्टेशन के सिगनल के लाल कुमकुमे चमक रहे थे. स्पष्टत: गाड़ी कोई स्टेशन लाँघ कर आई थी. पर अभी तक उसने रफ्तार नहीं पकड़ी थी.

डिब्बे के बाहर मुझे धीमे-से अस्फुट स्वर सुनाई दिए. दूर ही एक धूमिल-सा काला पुंज नजर आया. नींद की खुमारी में मेरी आँखें कुछ देर तक उस पर लगी रहीं, फिर मैंने उसे समझ पाने का विचार छोड़ दिया. डिब्बे के अंदर अँधेरा था, बत्तियाँ बुझी हुई थीं, लेकिन बाहर लगता था, पौ फटने वाली है.

मेरी पीठ-पीछे, डिब्बे के बाहर किसी चीज को खरोंचने की-सी आवाज आई. मैंने दरवाजे की ओर घूम कर देखा. डिब्बे का दरवाजा बंद था. मुझे फिर से दरवाजा खरोंचने की आवाज सुनाई दी. फिर, मैंने साफ-साफ सुना, लाठी से कोई डिब्बे का दरवाजा पटपटा रहा था. मैंने झाँक कर खिड़की के बाहर देखा. सचमुच एक आदमी डिब्बे की दो सीढ़ियाँ चढ़ आया था. उसके कंधे पर एक गठरी झूल रही थी, और हाथ में लाठी थी और उसने बदरंग-से कपड़े पहन रखे थे और उसके दाढ़ी भी थी. फिर मेरी नजर बाहर नीचे की ओर आ गई. गाड़ी के साथ-साथ एक औरत भागती चली आ रही थी, नंगे पाँव, और उसने दो गठरियाँ उठा रखी थीं. बोझ के कारण उससे दौड़ा नहीं जा रहा था. डिब्बे के पायदान पर खड़ा आदमी बार-बार उसकी ओर मुड़ कर देख रहा था और हाँफता हुआ कहे जा रहा था – ‘आ जा, आ जा, तू भी चढ़ आ, आ जा!’

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दरवाजे पर फिर से लाठी पटपटाने की आवाज आई – ‘खोलो जी दरवाजा, खुदा के वास्ते दरवाजा खोलो.’

वह आदमी हाँफ रहा था – ‘खुदा के लिए दरवाजा खोलो. मेरे साथ में औरतजात है. गाड़ी निकल जाएगी…’

सहसा मैंने देखा, बाबू हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ और दरवाजे के पास जा कर दरवाजे में लगी खिड़की में से मुँह बाहर निकाल कर बोला – ‘कौन है? इधर जगह नहीं है.’

बाहर खड़ा आदमी फिर गिड़गिड़ाने लगा – ‘खुदा के वास्ते दरवाजा खोलो. गाड़ी निकल जाएगी…’

और वह आदमी खिड़की में से अपना हाथ अंदर डाल कर दरवाजा खोल पाने के लिए सिटकनी टटोलने लगा.

‘नहीं है जगह, बोल दिया, उतर जाओ गाड़ी पर से.’ बाबू चिल्लाया और उसी क्षण लपक कर दरवाजा खोल दिया.

‘या अल्लाह! उस आदमी के अस्फुट-से शब्द सुनाई दिए. दरवाजा खुलने पर जैसे उसने इत्मीनान की साँस ली हो.’

और उसी वक्त मैंने बाबू के हाथ में छड़ चमकते देखा. एक ही भरपूर वार बाबू ने उस मुसाफिर के सिर पर किया था. मैं देखते ही डर गया और मेरी टाँगें लरज गईं. मुझे लगा, जैसे छड़ के वार का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ. उसके दोनों हाथ अभी भी जोर से डंडहरे को पकड़े हुए थे. कंधे पर से लटकती गठरी खिसट कर उसकी कोहनी पर आ गई थी.

तभी सहसा उसके चेहरे पर लहू की दो-तीन धारें एक साथ फूट पड़ीं. मुझे उसके खुले होंठ और चमकते दाँत नजर आए. वह दो-एक बार ‘या अल्लाह!’ बुदबुदाया, फिर उसके पैर लड़खड़ा गए. उसकी आँखों ने बाबू की ओर देखा, अधमुँदी-सी आँखें, जो धीर-धीरे सिकुड़ती जा रही थीं, मानो उसे पहचानने की कोशिश कर रही हों कि वह कौन है और उससे किस अदावत का बदला ले रहा है. इस बीच अँधेरा कुछ और छन गया था. उसके होंठ फिर से फड़फड़ाए और उनमें सफेद दाँत फिर से झलक उठे. मुझे लगा, जैसे वह मुस्कराया है, पर वास्तव में केवल क्षय के ही कारण होंठों में बल पड़ने लगे थे.

नीचे पटरी के साथ-साथ भागती औरत बड़बड़ाए और कोसे जा रही थी. उसे अभी भी मालूम नहीं हो पाया था कि क्या हुआ है. वह अभी भी शायद यह समझ रही थी कि गठरी के कारण उसका पति गाड़ी पर ठीक तरह से चढ़ नहीं पा रहा है, कि उसका पैर जम नहीं पा रहा है. वह गाड़ी के साथ-साथ भागती हुई, अपनी दो गठरियों के बावजूद अपने पति के पैर पकड़-पकड़ कर सीढ़ी पर टिकाने की कोशिश कर रही थी.

तभी सहसा डंडहरे से उस आदमी के दोनों हाथ छूट गए और वह कटे पेड़ की भाँति नीचे जा गिरा. और उसके गिरते ही औरत ने भागना बंद कर दिया, मानो दोनों का सफर एक साथ ही खत्म हो गया हो.

बाबू अभी भी मेरे निकट, डिब्बे के खुले दरवाजे में बुत-का-बुत बना खड़ा था, लोहे की छड़ अभी भी उसके हाथ में थी. मुझे लगा, जैसे वह छड़ को फेंक देना चाहता है लेकिन उसे फेंक नहीं पा रहा, उसका हाथ जैसे उठ नहीं रहा था. मेरी साँस अभी भी फूली हुई थी और डिब्बे के अँधियारे कोने में मैं खिड़की के साथ सट कर बैठा उसकी ओर देखे जा रहा था.

फिर वह आदमी खड़े-खड़े हिला. किसी अज्ञात प्रेरणावश वह एक कदम आगे बढ़ आया और दरवाजे में से बाहर पीछे की ओर देखने लगा. गाड़ी आगे निकलती जा रही थी. दूर, पटरी के किनारे अँधियारा पुंज-सा नजर आ रहा था.

बाबू का शरीर हरकत में आया. एक झटके में उसने छड़ को डिब्बे के बाहर फेंक दिया. फिर घूम कर डिब्बे के अंदर दाएँ-बाएँ देखने लगा. सभी मुसाफिर सोए पड़े थे. मेरी ओर उसकी नजर नहीं उठी.

थोड़ी देर तक वह खड़ा डोलता रहा, फिर उसने घूम कर दरवाजा बंद कर दिया. उसने ध्यान से अपने कपड़ों की ओर देखा, अपने दोनों हाथों की ओर देखा, फिर एक-एक करके अपने दोनों हाथों को नाक के पास ले जा कर उन्हें सूँघा, मानो जानना चाहता हो कि उसके हाथों से खून की बू तो नहीं आ रही है. फिर वह दबे पाँव चलता हुआ आया और मेरी बगलवाली सीट पर बैठ गया.

धीरे-धीरे झुटपुटा छँटने लगा, दिन खुलने लगा. साफ-सुथरी-सी रोशनी चारों ओर फैलने लगी. किसी ने जंजीर खींच कर गाड़ी को खड़ा नहीं किया था, छड़ खा कर गिरी उसकी देह मीलों पीछे छूट चुकी थी. सामने गेहूँ के खेतों में फिर से हल्की-हल्की लहरियाँ उठने लगी थीं.

सरदार जी बदन खुजलाते उठ बैठे. मेरी बगल में बैठा बाबू दोनों हाथ सिर के पीछे रखे सामने की ओर देखे जा रहा था. रात-भर में उसके चेहरे पर दाढ़ी के छोटे-छोटे बाल उग आए थे. अपने सामने बैठा देख कर सरदार उसके साथ बतियाने लगा – ‘बड़े जीवट वाले हो बाबू, दुबले-पतले हो, पर बड़े गुर्दे वाले हो. बड़ी हिम्मत दिखाई है. तुमसे डर कर ही वे पठान डिब्बे में से निकल गए. यहाँ बने रहते तो एक-न-एक की खोपड़ी तुम जरूर दुरुस्त कर देते…’ और सरदार जी हँसने लगे.

बाबू जवाब में मुसकराया – एक वीभत्स-सी मुस्कान, और देर तक सरदार जी के चेहरे की ओर देखता रहा.